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यस बॉस, नो बॉस की पॉलिसी हुई पुरानी, ‘ओपन डोर पॉलिसी’ का आया जमाना

November 19, 2021, 11:43 AM
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पेशेवर जिंदगी में लचीला माहौल जरूरी है।आखिर हो भी क्यों न, आरामदायक माहौल और अपनी सुविधा के मुताबिक काम करने से आत्म-विश्वास बढ़ता है, जिसका असर आपके काम पर भी दिखता है।दस पंद्रह साल पहले कार्यस्थल पर आजादी का मतलब था लड़कियों को भी अपनी काबिलियत के अनुसार मौके मिलना, समय से आना, समय से लंच टाइम मिल जाना और समय से चले जाना। लेकिन आज की युवतियों के लिए कार्यस्थल पर आजादी के मायने बदल चुके हैं।आज की लड़कियों की ‘फ्रीडम एट वर्कप्लेस’ की अपनी परिभाषा है जो बेहद फैली हुई है।आज न उनकी सोच संकुचित है और न ही आजादी की परिभाषा।

 

उनको यह आजादी इसलिए नहीं चाहिए क्योंकि वे लड़की हैं, बल्कि इसलिए चाहिए क्योंकि काम करने वालों को यह आजादी मिलनी ही चाहिए। स्टार्ट-अप के इस जमाने में जब छोटी-छोटी कंपनियां बड़ी उपलब्धियां हासिल कर रही हैं और बिजनेस की दुनिया में नाम कमा रही हैं, अपने कर्मचारियों को बेहद खुला और खुशनुमा माहौल देना कंपनियों की जरूरत बन गई है। अगर आप इन नए ऑफिस में जाकर आप देखेंगी, तो यहां का माहौल उस सोच से एकदम जुदा होगा, जहां लोग चुपचाप अपने केबिन या क्यूबिकल में बैठकर कंप्यूटर पर काम करते हैं। अब कंप्यूटर की जगह लैपटॉप ने ले ली है, लोगों को उनके ओहदे के मुताबिक अलग करने वाले क्यूबिकल खत्म हो चुके हैं और रिवॉल्विंग चेयर की जगह पैर फैलाकर काम करने वाले बीन बैग ने ले ली है।

 

ऑफिस आने के बाद काम करने का मन न हो तो आप ब्रेक भी ले सकती हैं

यह युवाओं की सोच ही है कि अब हर कंपनी का मकसद अपने कर्मचारियों को एक ऐसा आरामदायक माहौल देना है, जहां वे खुलकर पूरी आजादी के साथ काम कर सकें। इस कार्यस्थल पर न समय की कोई पाबंदी है और न ‘यस बॉस’ जैसी कोई जी-हुजूरी। भारत में अगर उन दस शीर्ष कंपनियों की लिस्ट देखी जाए जहां काम करने वाले लोग सबसे ज्यादा खुश हैं, तो आप देखेंगी कि इन कंपनियों ने पुरानी सारी परंपराएं तोड़ते हुए नियमों की अपनी अलग परिभाषा बनाई है। यहां कर्मचारी, चाहे वह महिला हो या पुरुष, को वह आजादी दी जाती है, जो वह चाहते हैं, जिसकी बदौलत इन कंपनियों का टर्नओवर भी अच्छा-खासा बढ़ा है।

फिलिप्स, पीडब्लूसी, सैप लैब, माइक्रोसॉफ्ट, इनफोसिस जैसी कई और कंपनियों के नियम जानने के बाद आप भी इनमें काम करने के सपने देखेंगी। यहां समय से आने की कोई पाबंदी नहीं है। ऑफिस आने के बाद काम करने का मन न हो तो आप ब्रेक भी ले सकती हैं, पार्किंग की जगह नहीं मिली तो घर जाकर काम कर सकती हैं। ऐसे तमाम नियम कर्मचारियों को एक खुशनुमा माहौल देकर उनकी काबिलियत में इजाफा करते हैं। आज की मिलेनियल पीढ़ी को यही तो चाहिए!

 

यस बॉस, नो बॉस वाली पॉलिसी अब पुरानी हो चुकी है और ये न ही आपको फायदा पहुंचाती है और न ही कंपनी को

बंगलुरु में एक आईटी कंपनी में काम करने वाली रिजु त्रिवेदी कहती हैं, “मुझे सिर्फ यह बता दिया जाए कि क्या काम होना है, वह कैसे होना है इसका फैसला मुझ पर छोड़ना ही मेरे लिए असली आजादी होगी। छोटी-छोटी बातों के लिए अपने सीनियर का मुंह ताकना और उनकी अनुमति लेना ही कंपनी के प्रति मेरी ईमानदारी का सबूत नहीं है।मुझे अपने ऑफिस में ऐसी आजादी चाहिए, जहां मैं अपने बॉस के पास जाकर अपनी राय रख सकूं और उनकी किसी बात से सहमत न होने पर बोल सकूं।” उनका कहना है कि यस बॉस, नो बॉस वाली पॉलिसी अब पुरानी हो चुकी है और ये न ही आपको फायदा पहुंचाती है और न ही कंपनी को।यह बात अब कंपनियों को भी समझ आ रही है, इसलिए वे ‘ओपन डोर पॉलिसी’ अपना रही हैं, जहां हर कर्मचारी की राय को महत्व दिया जाता है।

आजादी का यही मतलब है कि मुझे मेरे तरीके से काम करने दिया जाए

मीडिया हाउस में काम करने वाली अनन्या कहती हैं, “मैं एक ऐसा माहौल चाहती हूं, जहां मैं सच में काम कर सकूं, मुझे वहां काम करने का नाटक न करना पड़े। मैं एक क्रिएटिव फील्ड में काम करती हूं, जरूरी नहीं कि मैं हमेशा उसी क्रिएटिव मोड में रहूं, अगर मेरा मन लिखने का नहीं है और तब भी मुझे सिर्फ इसलिए लिखने को मजबूर होना पड़ रहा है क्योंकि मेरे बॉस मुझे डांटेंगे, तो जाहिर है मैं उस काम को बहुत अच्छे से तो नहीं कर पाऊंगी। इसलिए मेरे लिए तो आजादी का यही मतलब है कि मुझे मेरे तरीके से काम करने दिया जाए।”आज की महिलाएं काम का दबाव लेने को तैयार हैं। उस दबाव को कैसे मैनेज करना है, यह भी उन्हें अच्छी तरह आता है।

ऐसे में अपने कार्यस्थल पर उन्हें कम से कम वह आजादी तो चाहिए, जो काम के इस तनाव के साथ उसे संभालने की आजादी भी दे। हाल ही में ऐसे कई मामले सामने आए जब कम उम्र में दिल की बीमारी के कारण लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। कई मामलों में ऑफिस में बैठे-बैठे ही दिल का दौरा पड़ने से लोगों की मौत हो गई। विशेषज्ञ इसका कारण काम के बढ़ते दबाव और बढ़ती प्रतिस्पर्धा को मानते हैं। कंपनियां भी यह बात समझ रही हैं, इसलिए कई ऑफिस अपने कर्मचारियों को डी-स्ट्रेस करने के लिए कई तरह की गतिविधियां भी आयोजित करते हैं। लेकिन आज की युवा पीढ़ी का मानना है कि इस गतिविधियों की जगह अगर उन्हें काम करने की मनचाही आजादी ही दे दें तो
काफी है।

 

‘वर्क फ्रॉम होम’ की नीति ने पिछले कुछ सालों में जोर पकड़ा है

भोपाल की फिजियोथेरेपिस्ट अंकिता कहती हैं, “मेरे पास कई बार वे मरीज भी आते हैं, जिनका ऑर्थोपेडिक या न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर पहले से इलाज कर रहे होते हैं और साथ ही उनको फिजियोथेरेपी की सलाह देते हैं। ऐसे में अगर मेरे ट्रीटमेंट के बीच में वे डॉक्टर सही-गलत का फैसला करने लगते हैं तो ये गलत है। मेरे लिए तो आजादी का मतलब ‘मेरे काम में टांग न अड़ाओ’ ही है।मतलब आप अपना काम करो और मुझे अपना करने दो। न मैं आपके इलाज के बारे में अपनी राय रखूं न आप मेरे लाइन ऑफ ट्रीटमेंट पर फैसला सुनाओ।दूसरे के काम पर फैसला सुनाना तो आजादी का हनन है और मेरी फील्ड में इसका असर सीधा मरीज पर हो सकता है।

”कार्यस्थल पर एक बहुत बड़ा बदलाव समय और उपस्थिति को लेकर आया है।‘वर्क फ्रॉम होम’ की नीति ने पिछले कुछ सालों में जोर पकड़ा है। अपना काम, अपने तरीके और अपनी मनचाही जगह से करने की नीति का पालन विशेषतौर से स्टार्ट-अप कंपनियां कर रही हैं। पहले रजिस्टर पर साइन करके उपस्थिति दर्ज कराई जाती थी, रजिस्टर की जगह बाद में कार्ड स्वाइप ने और कार्ड के बाद बायोमेट्रीक अटेंडेंस ने ले ली, लेकिन अब उपस्थिति दर्ज कराने के लिए ऑनलाइन होना ही काफी है। यह नई नीति युवाओं को भी बेहद पसंद आ रही है। काम दे दिया जाए और वह काम कब चाहिए यह बता दिया जाए। काम के घंटे पूरे करने का बंधन टूट रहा है और यह सभी के लिए सबसे बड़ी आजादी है।

वर्कप्लेस पर आजादी उतनी ही जरूरी है जितना सांस लेना

दिल्ली की एक कंपनी में काम करने वाली प्रतिष्ठा का कहना है, “मुझे तो ऑफिस में 8-9 घंटे बिताने वाला कन्सेप्ट समझ ही नहीं आता।यानि बरसों पहले किसी ने यह फैसला किया और हम आज तक उसे मान रहे हैं? मुझे ऑफिस जाना पसंद नहीं क्योंकि आने जाने में सड़क पर ही मेरे दो घंटे खराब हो जाते हैं, ट्रैफिक की वजह से पहले ही थककर ऑफिस पहुंचो और फिर सारा दिन काम करके फिर एक घंटा ट्रैफिक में थको। इससे बेहतर है मैं बिना थके घर पर बैठकर काम करुं। इससे न मेरे दो घंटे बचते हैं बल्कि ऑफिस टाइम के बाद भी अगर काम करना पड़े, तो बुरा नहीं लगता। मेरा आउटपुट इससे बेहतर होता है। हां, कई बार ऑफिस में होना जरूरी होता है। मीटिंग और प्रेजेंटेशन के लिए जब भी ऑफिस में मेरा होना जरूरी होता है, मैं जाती हूं। लेकिन उसके अलावा नहीं। शुक्र है मेरी कंपनी भी यह बात समझती है, मुझे इसकी आजादी देती है और यह आजादी महिला होने की वजह से सिर्फ मुझे ही नहीं, बल्कि यहां काम करने वाले पुरुषों को भी मिली है।”

गुड़गांव में वर्किंग मदर रिचा पराशर कहती हैं, “वर्कप्लेस पर आजादी उतनी ही जरूरी है जितना सांस लेना। कंपनी टारगेट दे लेकिन उसे कैसे हासिल करना है यह मुझ पर छोड़ दे। मैं उसी कंपनी में काम करना पसंद करती हूं, जहां मुझे ‘वर्क फ्रोम होम’ की आजादी हो, क्योंकि अब तो सारा काम ही इंटरनेट पर होता है ऑफिस में करो या घर पर। एक बेहद खुला खुशनुमा वर्क कल्चर बेहतर परिणाम के लिए जरूरी है। ‘बॉसिज्म’ का जमाना गया, जब आप यस सर नो सर में सारी जिंदगी बिता देते थे। मेरे लिए वे आजादी जरूरी है जहां मैं अपने सीनियर से भी सवाल कर सकूं और जहां जूनियर कर्मचारियों और उनकी राय को भी पूरा महत्व दिया जाए।”

 

आजादी का मतलब सिर्फ अपने सीनियर को नाम से बुलाना या सबको समान मौके मिलना ही नहीं है

इसमें कोई शक नहीं कि एक आजाद मन बेहतर काम करता है। हमारी मिलेनियल पीढ़ी के लिए आजादी का मतलब सिर्फ अपने सीनियर को नाम से बुलाना या सबको समान मौके मिलना ही नहीं है, बल्कि उनके लिए आजादी का मतलब उतना ही विशाल है जितनी उनकी सोच। उनको पूरी आजादी चाहिए… मन की भी। एक आजाद सोच जो आप पर किसी तरह का बंधन न डाले, जो आपको सिर्फ रास्ता दिखाए, मंजिल पर पहुंचने की जल्दी न करे, जो आपको पूरी तरह सफर का मजा लेने दे। एक आजाद देश में कार्य संस्कृति यही होनी भी चाहिए।

कार्यक्षेत्र में महिलाएं। महिलाएं भारतीय कार्यबल का एक अभिन्न अंग हैं। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा प्रदान की गई सूचना के अनुसार, 2001 में, ग्रामीण क्षेत्रों में महिला श्रम भागीदारी दर 30.79 प्रतिशत थी, वहीं शहरी क्षेत्रों में 11.88 प्रतिशत थी। शहरोंं में, लगभग 80 प्रतिशत महिला श्रमिक संगठित क्षेत्रों में काम करती हैं, जैसे घरेलू उद्योग, छोटे व्यापार और सेवाएं तथा भवन निर्माण।सॉफ्टवेयर उद्योग में 30% कर्मचारी महिलाएं हैं।

वे पारिश्रमिक और कार्यस्थल पर अपनी स्थिति के मामले में अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी पर हैं। 1991 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में डेयरी उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी कुल रोजगार का 94% है। वन-आधारित लघु-स्तरीय उद्यमों में महिलाओं की संख्या कुल कार्यरत श्रमिकों का 51% है। 2006 में भारत की पहली बायोटेक कंपनियों में से एक- बायोकॉन की स्थापना करने वाली किरण मजूमदार-शॉ को भारत की सबसे अमीर महिला का दर्जा दिया गया था।

Source – Amar Ujals

   
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